कभी जब वक़्त मिले…
ठोस शहर की गुमनाम दीवारे छोड़
कल कल बहती नदिओं की तरफ जाना
गली कूंचें बहकी हुई सड़के छोड़
छोटी छोटी पग डंडिओ की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले तो गांव की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले…
भीड़ की आनन् फानन छोड़
फुल पंखुडिओ के महकते तन की तरफ जाना
बिखरी हुई बातों की बदनसीबी छोड़
ख़ुशी समेटे विशाल पहाड़ की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले तो गांव की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले…
खून से रंगी काली सियाही के बादल छोड़
सुकून में भीगी सूरज की धुप की तरफ जाना
चका चोंध हुए सोच विचार छोड़
राहत के बुग्याल की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले तो गांव की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले…
ऊँचीं बालकनी की रेलिंग से फिसलती बूँदें छोड़
पेड़ पत्तों के टपकते पानी की खुसबू की तरफ जाना
छतों में ठहरा बारिश का पानी छोड़
डाँड़ें में भीगते बदन की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले तो गांव की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले…
भूले बीतें कुछ सालों छोड़
कल की आँख मिचौली को ठप्पा कर जाना
भटकते हुए रास्ते को फिर से याद करते,
साँझ ढले दबे पाऊँ लोट आना
कभी जब वक़्त मिले तो गांव की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले तो गांव की तरफ जाना
कभी जब वक़्त मिले तो गांव की तरफ जाना…….