चाँद सजी रात का

पृष्ठ इक पलट गया, जिन्दगी किताब का।
धार कलम सुर्ख स्याह रंग की दवात का।
सूर्य छिपा लाल चुनर ओढ़ क्षितिज सांझ का।
मौन मुखर हो रहा है चाँद सजी रात का।

जो बज उठे सितार प्राण तार में विलीन के।
लहर उठी कि ले चली तले जमीन छीन के।
समीर सी विरल हुई कि नीर सी तरल हुई,
गटक गरल गये तो जिन्दगी बड़ी सरल हुई।

देह बनी पुष्प, ज्यों सहस्रदल कमल खिले।
सुगन्ध मंद उड़ चली कि रूह में घुले-मिले।
स्वयंप्रभा, स्वयं प्रभाव भीतरी प्रभात का।
मौन मुखर हो रहा है चाँद सजी रात का।

Leave a Comment