शादी शब्द सुनते ही दिमाग में कई कहानिया बनने लगती हैं | आजकल पहले प्रेम कहानी होती है, फिर परिवारों का मिलना जुलना होता है, फिर शादी होती है , लेकिन किसी जमाने में हमारे उत्तराखंड में पहले परिवार मिलते थे फिर शादी हो जाती थी और फिर होता था प्रेम… तो यह लेख भी उसी समय का है , पढने पे आपको महसूस होगा की शायद आपके मम्मी पापा , दादा दादी , ताऊ ताई की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही होगी |
अब चूँकि जन्म भर का बंधन था तो लड़के लड़की के घर वाले किसी भी स्तर पर चूकते नही थे, वर वधु के परिवार का तो ठीक , उनके मामा के परिवार की भी अच्छे से जांच पड़ताल करना भी स्वाभाविक था | शादी से पहले दोनों का मिला जुलना तो दूर की बात जी , सकल तक देख पाना नसीब नही होता था , और शादी की तारीख तक मन ही मन अपने साथी की अदृश्य छवि से जो प्रेम का बंधन बन जाता था उसे वाकई जीवन पर्यंत तोड़ पाना संभव न था |
दरअसल यही प्रेम निस्वार्थ, निष्कपट भी है क्यूकि आप जानते तक नही कि जिसके चरणों में आप अपना पूरा जीवन निछावर कर देने वाले हैं वह कैसा दीखता है, कैसा बोलता है ,क्या उसकी पसंद है और क्या उसके तरीके हैं | फिर भी मात्र अपने माता पिता की पसंद पर विस्वाश करने का जो अदम्य साहस हमारे पुरखों में था उसका शायद रत्ती भर हिस्सा भी हममें नहीं होगा | उन दिनों के प्रेम में बड़ी सच्चाई थी क्यूंकि वह प्रेम आजकल की तरह शर्तों पे नही टिका होता था कि दोनों की सोच मिलना आवश्यक है ,दोनों की आदतें, पसंद-नापसंद स्थान मिलना जरूरी है , बल्कि वह प्रेम इस बात पर आधारित था की आप एक दूसरे को कितना स्वीकार कर पाते हैं भले ही आपकी आदतें कितनी भी अलग हों |
भिन्नता प्रकृति का अटूट नियम है और हर कोई व्यक्ति एक दुसरे से अलग होगा यह भी स्वाभाविक है , इसीलिए अपने जैसा जीवनशाथी मिलना असंभव है , बल्कि असल प्रेम तो इसी में छुपा है की आप अपने साथी को किस हद तक स्वीकार पाते हैं | क्यूंकि बचपन की कुछ धुंधली यादों मेरे आमा-बूबू (दादा –दादी ) की यादें भी जीवित हैं उन दोनों का व्यव्हार बिलकुल ही विपरीत था जहाँ एक ओर मेरी दादी काफी मिलनसार और बातूनी हुआ करती थी तो मेरे दादाजी अंतर्मुखी व्यक्तित्व के थे लोगो से मिलना जुलना बातें करना उन्हें बिलकुल पसंद नही था इसी वजह उनकी नोक झोंक भी हुआ करती थी लेकिन जो प्रेम और समर्पण उनके 35 साल के वैवाहिक जीवन में था शायद वो आज कल के वैवाहिक जोड़ों मै नही देखा जा सकता |
उस समय विवाह समारोह भी आज से काफी अलग तरीके से हुआ करता था , बरातें एक गाँव से दुसरे गाँव तक पैदल जाया करती थी और ये यात्रा बड़ी आनंदित माहौल में होती थी हसी मजाक, किस्से कहानियो से भरपूर | हर बारात की अपनी कुछ विशेष यादें हमेशा के लिए जुड़ जाती थी | विवाह समारोह अक्सर रात में ही हुआ करते थे , आजकल की तरह दो चार घंटे में सारी शादी नही निपटती थी ,पुरे रात व दिन का समारोह रहता था , बारातियों के रात में ठहरने के लिए गाँव के ही सरकारी स्कूल में खाटें बिछाई जाती थी | हँसी मजाक भी सभ्यता के दायरे म ही बंधा होता था फूहड़ मजाक का कोई स्थान नही था |
भोजन की व्यवस्था पारंपरिक रुप से नियुक्त व्यक्ति द्वारा धोती पहनकर की जाती थी और वाद्य यन्त्र भी पारंपरिक ढोल नगारे और मसकबीन रहते थे और छोलिया नृत्य जो अब विलुप्त होने की कगार में है उस समय हर शादी का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करता था | आज भी बचपन की कुछ शादियों की झलकें मेरे मन में स्थापित हैं और आजकल की शादियों से उनकी तुलना करने पर हमें ज्ञात होता है की हम आधुनिकता की दौड़ में अपने अनमोल रीति रिवाजों, संस्कारो को खो चुके हैं |
उन्हीं संस्कारो को सम्हालने की एक कोशिश……. BugyalValley.com