निसर्ग को प्रणाम् है!

जिस प्राकृतिक ऊर्जा से यह पिण्ड सराबोर हो रहा है,जिस परमस्रोत की रौशनी में नहाकर मैं धन्य हो रहा हूँ ,सूर्यप्रभा है कि स्वयंप्रभा है! 

इन ध्वनियों को किन शब्दों में कह पाऊँगा जो नैसर्गिक हैं,प्रकृति के आकार व निराकार से उठ रही हैं। ये नजारे ये निनाद ये सुगंध ये स्पर्श ये स्वाद पहले तो अनुभव नही हुए।किस एकांत किस सहजता में, पाँचों इन्द्रियाँ बिलकुल अलग ही अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं यह भी शब्दों की ज़द से बाहर है।      

‘शब्द’मात्र संकेत हैं उस अनुभव की ओर..’मौन’भाषा है उसकी और ‘सहजता’एक बेहतर उपाय है इस आनन्दपूर्ण अनुभव का। सहजता वह निर्भार स्थिति है जिसमें अस्तित्व पानी जैसा तरल और हवा जैसा सरल प्रतीत होता है।

मैं नाच उठा हूँ ,रो पड़ा हूँ इस नयेपन से..सारे भरम उतारकर नग्न हुअा जा रहा हूँ ज्यों अमृत की नदी से नहा कर उठा हूँ, तरबतर हुआ हूँ। ये प्रकृति मेरी पूरक है पोषक है, मैं हिस्सा हूँ निसर्ग का। ये फूल,पेड़,पक्षी,जानवर,कीडे..एक ही प्राण चेतना की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं। प्रकृति के इस समस्त रूप सौन्दर्य को मेरा प्रेम,सद् भाव और प्रणाम है।

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